" सा विद्या या विमुक्तये "
केवल शिक्षा (ज्ञान) ही ऐसा तत्व है जो मनुष्य को विवेकशील बनाकर उसे पशुओं से अलग करता है और सच्चे अर्थों में ऋग्वेद की उक्ति 'मनुर्भव' (मानव बनो) का तात्पर्य विकसित करता है। शिक्षा अनेक भ्रमों, संदेहो और संशयो को दूर करती है और कई बार परोक्ष अर्थ को भी दिखाती है। शिक्षा तो प्राणियों के तृतीय नेत्र के समान है। जिसके पास यह तृतीय नेत्र नहीं हैं, वह एक प्रकार से अंधा है।
शिक्षा के बिना मनुष्य का जीवन कुते की पूछ के समान व्यर्थ होता है। शिक्षा के बल पर ही मनुष्य देश-विदेश सर्वत्र आदर पाता है। सांसारिक सभी द्रव्यों में शिक्षा ही सर्वोतम धन है, क्योंकि इसे न कोई चुरा सकता है, न मूल्य देकर खरीद सकता है और न इसका नाश हो सकता है।
इन्द्रियों को वंश में करने की क्षमता में वृद्धि और ईर्ष्या-द्वेष, लोभ,मोह, शोक आदि बधनों से मानव को मुक्त करना शिक्षा का प्रयोजन है। इससे शिक्षा को चरम उद्देश्य की पूर्ति होती है (सुख की प्राप्ति होती है)। "सा विद्या या विमुक्तये" संपूर्ण भारतीय वाङ्मय में शिक्षा के साथ 'धर्म' का अन्योन्याश्रय सम्बंध माना गया है। 'धर्म' शब्द की व्याख्या तो अनेक रूपों में की जाती है। किन्तु "धारणात् धर्म इत्याहुः, धर्मो धारयते प्रजाः” इस उक्ति के अनुसार जीवन में आचार 'व्यवहार' कर्तव्यों आदि के पालन की ओर अग्रसर करने वाला धर्म है और धर्म का मूल ज्ञान है। ज्ञानी ही धर्मज्ञ (आचार व्यवहार के ज्ञाता) माने गये हैं और उनका आचरण उनके द्वारा अपनाई गई परपंरा को शिष्टाचार माना जाता है। धैर्य, शान्ति, अहिंसा, दया, करूणा, सहानुभूति, सौजन्य, प्रेम इन्द्रियों का निग्रह, सत्य आदि शाश्वत नैतिक (मानवीय) गुण समाज को राष्ट्र को और मानवमात्र को उनके दैनिक जीवन को मर्यादित और विकसित करते हैं। "आत्मनः प्रतिकूलानि परेषां ने समाचरेत्" जो व्यवहार स्वयं को अच्छा न लगे, वह दूसरों के लिए भी नहीं करना चाहिए। धर्म और ज्ञान सबको आपस में जोड़ते हैं तोड़ते नहीं। अपने कर्तव्य के प्रति निष्ठावान् होना ही धर्मपालन है, जैसे एक सैनिक कर्तव्यबोध की भावना से प्रेरित होकर मात भूमि की रक्षा के लिए मर मिटता है। उचित-अनुचित का विवेक खो देने से मनुष्य में पशुता न आ जाए और वह मानव सुलभ स्वभाव अपनाये रहे, इसलिए धर्म को शिक्षा का अंग माना गया है।
विद्यार्थी के जीवन में माता-पिता और आचार्य (शिक्षक) इन तीन उत्तम शिक्षकों का जब योगदान होता है तो उसका जीवन ज्ञान-ज्योति से प्रदीप्त हो उठता है। सन्तान को ज्ञान-पथ को ओर अग्रसर करने वाले माता-पिता ही उसके मित्र माने गये हैं, अन्यथावे शत्रुवत् है। यम, वरूण, सोम, औषधि के गुणों वाले सदाचार की शिक्षा देने वाले आचार्य (शिक्षक) का वह स्वरूप उदात माना जाता है, जिसमें वह स्वयं कहता है कि "यान्यस्माकं सुचारितानि तानि त्वयोपास्यानि नो इतराणि” (जो हमारे सत् आचरण हैं उन्हीं का अनुसरण करो दूसरों का नहीं ) और अच्छे बुरे आचरण का ज्ञान भी आचार्य ही कराता है। शास्त्रों का ज्ञानी (शिक्षक) यदि आचारभ्रष्ट हो तो समाज के लिए दूषित (अपवित्र) माना जाता है। उसे शास्त्र (वेद) भी पवित्र नहीं कर सकते।
शिक्षा प्राप्ति में शिक्षक, वातावरण आदि सभी का योगदान होता है। अतः परिवार, कुटुम्ब, पड़ोसी सबका वातावरण शुद्ध और सदाचारमय होना चाहिए। बच्चे में पड़ोसियों की अच्छाइयां व बुराईयां घर कर लेती है। जैसे हवा में समीपस्थ स्थान की गंध मिलकर चारों ओर फैल जाती है।
उपर्युक्त तथ्यों से मानव-जीवन के लिए शिक्षा की अनिवार्यता स्वतः स्पष्ट है। एक तो मानव जन्म प्राप्त करना दुर्लभ है, उस पर से विद्या प्राप्ति कठिन है।
प्राचार्या
सीमा जी