तेजो मयि देहि

शिक्षा के द्वारा ऐसा ज्ञान अपेक्षित है जिसमें मनुष्य का सर्वांगीण विकास हो। यजुर्वेद में एक मंत्र है - उद्यो स्येधिषीमहि समदसि । तेजो सि तेजो मयि देहि ।

हे प्रभु आप जो अपने जाजज्वलयमान प्रकाश से हमारे अन्तर को आलोकित करते हैं और हमें सब प्रकार का ज्ञान देते हैं। हमें ऐसा तेज प्रदान करें कि जिसको प्राप्त कर हम सभी दिशाओं में प्रगति कर सकें। 


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प्रभु से केवल ज्ञान की कामना हमने नहीं की बल्कि हमें सभी दिशाओं में प्रगति करनी है। हम एक समाज और राष्ट्र की चहुँमुखी विकास चाहते हैं तो ज्ञान के फलस्वरूप व्यक्ति में ऐसे चरित्र का निर्माण होना चाहिए कि उसमें सामाजिक संवेदनशीलता आये। प्रमाणिकता, सहिष्णुता, परस्पर सहयोग एवं सद्भाव के गुण उसके चरित्र का अंग बनने चाहिए। यदि शिक्षा को सामाजिक परिवर्तन का साधन बनना है तो केवल मात्र अक्षर ज्ञान देने वाली शिक्षा से यह उद्देश्य पूरा नहीं हो सकता। हमें ऐसे क्रिया कलापों को अपने पाठ्यक्रम में महत्वपूर्ण स्थान देना होगा जिससे हम अपनी शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक शक्तियों का विकास करते हुए नाता जोड़ सकें। शिक्षा के द्वारा अपने समाज के निर्बल, असहाय तथा उपेक्षित वर्ग के प्रति सच्ची सहानुभूति तथा अपने सुखों को उनके साथ बांट लेने में आनन्द अनुभव करने का अंतःकरण यदि निर्माण हो गया तो समाज में सब प्रकार का शोषण समाप्त हो जाएगा।


                                                                                                  “तन समर्पित, मन समर्पित और यह जीवन समर्पित ।"

                                                                                                                  "चाहता हूं देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं।"

                                                                  यह संकल्प यदि शिक्षा मंदिरों के वायुमण्डल में पूर्ण व्याप्त हो गया तो आज सभी प्रश्न स्वयं हल होते दिखाई देंगे।

                                                                   तेजो मयि देहि - हे प्रभु! हमें तेज प्रदान करो। हमारे ध्येय चिह्न में सूर्य, संख्य, दीपक और कमल विद्यमान हैं।

सूर्य भगवान सार्वभौमिक तेज का प्रतीक है। उसकी उष्मास जनकारी है, उसका तेज जीवन दाता है जो सब प्रकार की शक्ति, शौर्य और तेज का मूल स्रोत है। 

भगवान का पांचजन्य शंख उसी कल्याण का उद्घोष करता है। जिसकी ध्वनि तरंगों व वीर स्वर से पापी, दुराचारी, अन्यायी व दुर्जनों की हृदय गति रूक जाती है लेकिन कर्त्तव्य परायण, देश एवं मानवता के प्रति समर्पित वीर पुरूषों का हृदय उस शंख ध्वनि के सुनते हुए उत्साह और उमंग से भर उठता है। 

स्वयं कष्ट का वरण कर दुसरों के लिए कल्याण का मार्ग बनाना, अंधेरे में बैठे हुए को अपने जीवन की बाती और अन्दर का तेज जलाकर आलोक प्रदान करना यही तो है जलते दीपक का संदेश वह स्वयं तो तिल-तिल जलता है केवल दूसरों को प्रकाश देने के लिए। कब की है उसने अपने लिए प्रकाश की कामना? स्वयं तो वह सदा अंधेरे में ही रहा है परन्तु हर घर व कुटिया को वह अपने आलोक से भर देता है। अपने देश और समाज के लिए जिन्होंने अपने जीवन की बाती और अन्तर का तेल दीपक की तरह तिल-तिल कर होम कर दिया है । वही धन्य हैं। वही बंदनीय है। वही अनुकरणीय है। जीवन दीप जले ऐसा, जग को ज्योति मिले।

कमल है शुचिता, पवित्रता, त्याग और समर्पण का प्रतीक। विश्व में व्याप्त काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार के पंक में भी अपनी पवित्रता बनाये रखने वालों को ही तो पंकज का अलंकार मिला है। पर अपनी शुचिता और पवित्रता का किंचित मात्र भी दम्भ नहीं है, बस केवल प्रभु चरणों में समर्पित हो जाने की एक चाह ही तो सजोई है उस कमल पुष्प नें। यह मेरा देश ओर उस पर बसने वाला समाज-यही तो है नारायण का प्रत्यक्ष स्वरूप। मैं अपनी सामार्थ्य, ज्ञान, विज्ञान, आभा, प्रभा, शुचिता, पवित्रता के साथ इसके लिए समर्पित हो जाऊं तो इससे बढ़कर और क्या सौभाग्य होगा।

 गुरुकुल विद्यापीठ के परिसर में यह संस्कार, शिक्षा के माध्यम से बालक/बालिकाओं के जीवन का अंग बन जाए, इस कामना के साथ सम्पूर्ण गुरुकुल विद्यापीठ समाज की सेवा में समर्पित है।


राजेश स्वरूप शास्त्री जी महाराज

संचालक